JAYOTISH SANSAR

ग्रहों के वर्जित दान एवं कार्य

अक्सर अपने दैनिक जीवन में प्राय: हम एक कहावत विभिन्न अर्थों में सुनते हैं कि "नेकी कर दरिया में डाल" या नेकी करो और भूल जाओ. कभी-कभी अच्छे शब्दों में भी सुनते हैं, कि हम किसी के लिए कितना ही अच्छा क्यों न करें लेकिन बदले में हमेशा बुराई ही हाथ लगती है.
एक व्यक्ति किसी गरीब को भोजन कराता है, तो खाने वाला बीमार पड जाता है. किसी नें किसी को धन उधार दिया तो उसकी वसूली के समय देनदार नें कोई गलत कदम उठा लिया और बेचारा लेनदार बिना वजह मुसीबत में फँस गया. किसी की मदद करने चले तो उल्टा स्वयं ही अपने लिए मुसीबत मोल ले बैठे. अमूमन ऎसी सैकडों प्रकार की घटनायें आये दिन किसी न किसी प्रकार से किसी न किसी के साथ घटती ही रहती हैं.
दरअसल यह सब निर्भर करता है हमारी जन्मकुँडली में बैठे ग्रहों पर, जो यह संकेत करते हैं कि किस वस्तु का दान या त्याग करना अथवा कौन से कार्य हमारे लिए लाभदायक होगें और कौन सी चीजों के दान/त्याग अथवा कार्यों से हमें हानि का सामना करना पडेगा. इसकी जानकारी निम्नानुसार है.
जो ग्रह जन्मकुंडली में उच्च राशि या अपनी स्वयं की राशि में स्थित हों, उनसे सम्बन्धित वस्तुओं का दान व्यक्ति को कभी भूलकर भी नहीं करना चाहिए.
सूर्य मेष राशि में होने पर उच्च तथा सिँह राशि में होने पर अपनी स्वराशि का होता है. अत: आपकी जन्मकुंडली में उक्त किसी राशि में हो तो:-
* लाल या गुलाबी रंग के पदार्थों का दान न करें.
* गुड, आटा, गेहूँ, ताँबा आदि किसी को न दें.
* खानपान में नमक का सेवन कम करें. मीठे पदार्थों का अधिक सेवन करना चाहिए.
चन्द्र वृष राशि में उच्च तथा कर्क राशि में स्वगृही होता है. यदि आपकी जन्मकुंडली में ऎसी स्थिति में हो तो :-
* दूध, चावल, चाँदी, मोती एवं अन्य जलीय पदार्थों का दान कभी नहीं करें.
* माता अथवा मातातुल्य किसी स्त्री का कभी भूल से भी दिल न दुखायें अन्यथा मानसिक तनाव, अनिद्रा एवं किसी मिथ्या आरोप का भाजन बनना पडेगा.
* किसी नल, टयूबवेल, कुआँ, तालाब अथवा प्याऊ निर्माण में कभी आर्थिक रूप से सहयोग न करें.
मंगल मेष या वृश्चिक राशि में हो तो स्वराशि का तथा मकर राशि में होने पर उच्चता को प्राप्त होता है. ऎसी स्थिति में:--
* मसूर की दाल, मिष्ठान अथवा अन्य किसी मीठे खाद्य पदार्थ का दान नहीं करना चाहिए.
* घर आये किसी मेहमान को कभी सौंफ खाने को न दें अन्यथा वह व्यक्ति कभी किसी अवसर पर आपके खिलाफ ही कडुवे वचनों का प्रयोग करेगा.
* किसी भी प्रकार का बासी भोजन( अधिक समय पूर्व पकाया हुआ) न तो स्वयं खायें और न ही किसी अन्य को खाने के लिए दें.
बुध मिथुन राशि में तो स्वगृही तथा कन्या राशि में होने पर उच्चता को प्राप्त होता है. यदि आपकी जन्मपत्रिका में बुध उपरोक्त वर्णित किसी स्थिति में है तो :--
* हरे रंग के पदार्थ और वस्तुओं का दान नहीं करना चाहिए.
* साबुत मूँग, पैन-पैन्सिल, पुस्तकें, मिट्टी का घडा, मशरूम आदि का दान न करें अन्यथा सदैव रोजगार और धन सम्बन्धी समस्यायें बनी रहेंगी.
* न तो घर में मछलियाँ पालें और न ही मछलियों को कभी दाना डालें.
बृहस्पति जब धनु या मीन राशि में हो तो स्वगृही तथा कर्क राशि में होने पर उच्चता को प्राप्त होता है. ऎसी स्थिति में :--
* पीले रंग के पदार्थों का दान वर्जित है.
* सोना, पीतल, केसर, धार्मिक साहित्य या वस्तुएं आदि का दान नहीं करना चाहिए. अन्यथा "घर का जोगी जोगडा, आन गाँव का सिद्ध" जैसी हालात होने लगेगी अर्थात मान-सम्मान में कमी रहेगी.
* घर में कभी कोई लतादार पौधा न लगायें.
शुक्र जब जन्मपत्रिका में वृष या तुला राशि में हो स्वराशि तथा मीन राशि में हो तो उच्च भाव का होता है. अत ऎसी स्थिति में:--
* ऎसे व्यक्ति को श्वेत रंग के सुगन्धित पदार्थों का दान नहीं करना चाहिए अन्यथा व्यक्ति के भौतिक सुखों में न्यूनता पैदा होने लगती है.
* नवीन वस्त्र, फैशनेबल वस्तुएं, कास्मेटिक या अन्य सौन्दर्य वर्धक सामग्री, सुगन्धित द्रव्य, दही, मिश्री, मक्खन, शुद्ध घी, इलायची आदि का दान न करें अन्यथा अकस्मात हानि का सामना करना पडता है.
शनि यदि मकर या कुम्भ राशि में हो तो स्वगृही होता है तथा तुलाराशि में होने पर उच्चता को प्राप्त होता है. ऎसी दशा में :--
* काले रंग के पदार्थों का दान न करें.
* लोहा, लकडी और फर्नीचर, तेल या तैलीय सामग्री, बिल्डिंग मैटीरियल आदि का दान/त्याग न करें.
* भैंस अथवा काले रंग की गाय, काला कुत्ता आदि न पालें.
राहु यदि कन्या राशि में हो तो स्वराशि का तथा वृष(ब्राह्मण/वैश्य लग्न में) एवं मिथुन(क्षत्रिय/शूद्र लग्न में) राशि में होने पर उच्चता को प्राप्त होता है. ऎसी स्थिति में:--
* नीले, भूरे रंग के पदार्थों का दान नहीं करना चाहिए.
* मोरपंख, नीले वस्त्र, कोयला, जौं अथवा जौं से निर्मित पदार्थ आदि का दान किसी को न करें अन्यथा ऋण का भार चढने लगेगा.
* अन्न का कभी भूल से भी अनादर न करें और न ही भोजन करने के पश्चात थाली में झूठन छोडें.
केतु यदि मीन राशि में हो तो स्वगृही तथा वृश्चिक(ब्राह्मण/वैश्य लग्न में) एवं धनु (क्षत्रिय/शूद्र लग्न में) राशि में होने पर उच्चता को प्राप्त होता है. यदि आपकी जन्मपत्रिका में केतु उपरोक्त स्थिति में है तो :--
* घर में कभी पक्षी न पालें अन्यथा धन व्यर्थ के कामों में बर्बाद होता रहेगा.
* भूरे, चित्र-विचित्र रंग के वस्त्र, कम्बल, तिल या तिल से निर्मित पदार्थ आदि का दान नहीं करना चाहिए.
* नंगी आँखों से कभी सूर्य/चन्द्रग्रहण न देंखें अन्यथा नेत्र ज्योति मंद पड जाएगी अथवा अन्य किसी प्रकार का नेत्र सम्बन्धी विकार उत्पन होने लगेगा.

यत् पिण्डे तत् ब्राह्मण्डे

"यत् पिंडे तत् ब्राह्मंडे"----अर्थात जो ब्राह्मण्ड में है, वही इस हमारे शरीर में है. हम साढे तीन हाथ व्यास वाले इस मानव शरीर को अनन्त विस्तार वाले ब्राह्मण्ड का संक्षिप्त संस्करण कह सकते हैं. जैसे विस्तृत भूगोल का समस्त संस्थान छोटे से नक्शे में अंकित रहता है, ठीक उसी प्रकार ब्राह्मण्ड में विद्यमान समस्त वस्तुओं का मूल स्त्रोत हमारा अपना ये शरीर है.
ब्राह्मण्ड यदि पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और आकाश---इन पाँच महाभूतों के मिश्रण का परिणाम है, तो हमारा ये शरीर भी इन्ही के संघात से निर्मित है. ब्राह्मण्ड में सूर्य है तो इस शरीर में सूर्य का प्रतिनिधि आत्मतत्व विद्यमान है, ब्राह्मण्ड में चन्द्रमा है तो शरीर में उसका प्रतीक मन है, ब्राह्मण्ड में मंगल नामक लाल रंग का ग्रह विद्यमान है तो शरीर में विभिन्न रंगों के खाये हुए भोजन के रस से यकृत और पलीहा (जिगर और तिल्ली) द्वारा रंजित, पित्त के रूप में परिणित होने वाला रूधिर(खून)विद्यमान है. ब्राह्मण्ड में बुध,बृहस्पति,शुक्र और शनि नामक ग्रहों की सत्ता है तो हमारे इस शरीर में इन सबके प्रतिनिधि क्रमश:---वाणी, ज्ञान, वीर्य और दु:खानुभूति विद्यमान है. पर्वत, वृक्ष, लता, गुल्मादि के प्रतीक अस्थियाँ, केश रोम, नदी-नालों की भान्ती नसें, नाडियाँ और धमनियों का जाल बिछा हुआ है-----कहने का तात्पर्य यह है कि सृष्टि की समस्त वस्तुएं हूबहू उसी रूप में हमारे इस शरीर में मौजूद हैं. आप इस शरीर को एक प्रकार से ब्राह्मण्ड का नक्शा कह सकते हैं.
हमारी उपर्युक्त स्थापना को सीधे शब्दों में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि "ब्राह्मण्ड" विराट का शरीर है, जिसे ज्योतिष में हम कालपुरूष के नाम से सम्बोधित करते हैं और "पिण्ड"---उसी के अंशभूत जीव का शरीर अर्थात अंशावतार है. अतैव यह सिद्ध है--इस ब्राह्मण्ड रूपी कालपुरूष में सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों की विभिन्न गतिविधियों एवं क्रिया-कलापों में जो नियम काम करते है, ठीक वे ही नियम प्राणी मात्र के शरीर में स्थित इस सौरमंडल की ईकाई का संचालन करते हैं.
यदि हम प्राणी या पदार्थ की आन्तरिक संरचना के आधार पर ध्यान दें, तो इस सिद्धान्त को बहुत अच्छे से समझ सकते हैं. इस बात को तो हर व्यक्ति जानता है कि प्रत्येक प्राणी या पदार्थ की सूक्ष्म तथा प्राथमिक संरचना का आधार परमाणु है और इन परमाणुओं की ईंटों को जोडकर प्राणी या पदार्थ का विशालतम भवन बनकर तैयार होता है. यह परमाणु भी आकार-प्रकार में हूबहू सौरजगत के समान ही होता है. इसके मध्य में एक घन विद्युत का बिन्दु होता है, जिसे केन्द्र कहते हैं. जिसका व्यास एक इंच के दस लाखवें भाग का भी दस लाखवां भाग होता है. परमाणु के जीवन का सार इसी केन्द्र में बसता है. इसी केन्द्र के चारों ओर अनेक सूक्ष्मातिसूक्ष्म विद्युतकण(Electrons) चक्कर लगाते रहते हैं और वे इस गतिविधि में हमारे सौरजगत के प्रत्येक क्रिया-कलाप का अनुकरण करते रहते हैं. इस प्रकार के अनन्त परमाणुओं-----जिन्हे शरीर विज्ञान की भाषा में कोशिकायें या Cells कहते हैं, के समाहार का एकत्र स्वरूप हमारा ये शरीर है.
हमारे शरीर के सैल्स "Law of Affinity" के नियम के अनुसार दलबद्ध होकर शरीर के टिश्यूज (Tisues) और उनके द्वारा अंग बनाते हैं. जिनके परस्पर मिलने से हमारा स्थूल शरीर बन जाता है. इस प्रकार जब हमारा शरीर एवं शरीर के अवयव उन कोशिकाओं से बने हैं, जो सौरजगत के क्रियाकलापों का अनुकरण करते हैं, तो यह अनायास ही समझ में आ जाता है कि इन कोशिकाओं द्वारा बना हमारा शरीर भी ब्राह्मण्ड की गतिविधियों का अनुकरण करता है.
 अब ये तथ्य तो पूर्णरूपेण सिद्ध हो चुका है कि हमारी इस अनन्त ब्राह्मण्ड से घनिष्ठता है. और इस विषय में मेरा ये मानना है कि यदि विज्ञान अपने अनुसन्धान का क्षेत्र सुदूर ग्रह-नक्षत्रों की अपेक्षा इस शरीर को बनाए तो इसकी संरचना को जान,समझकर सम्पूर्ण ब्राह्मण्ड के अज्ञात रहस्यों से पर्दा उठाया जा सकता है. लेकिन उसके लिए आवश्यकता है पूर्ण अनासक्ति भाव की.......क्योंकि अनासक्ति के बिना न तो पूर्वाग्रह नष्ट होता है और न ही तटस्थरूप से अवलोकन किया जा सकता है. इसलिए ऎसी अनासक्ति के बिना अज्ञात क्षेत्र की खोज करना और फिर यथार्थ परिणाम निकाल लेना कहाँ सम्भव है. यह भाव तो सिर्फ उन भारतीय महर्षियों के ही पास था, जो बिना किसी साधन के ही काल के अभेद रहस्यों को जान लिया करते थे. क्या आज के विज्ञानवेताओं के पास अनासक्ति का यह गुण है ?

क्या राशियाँ तेरह हैं ?

क्या राशियाँ तेरह हैं ? भारतीय तो शताब्दियों से मेष से मीन पर्यन्त बारह राशियों की ही बात सुनते-पढते चले आ रहे हैं. भौतिक विज्ञान की कक्षाओं में भी 12 राशियाँ ही बताई जाती हैं. तब यह तेरहवीं राशी अचानक कहाँ से उत्पन हो गई ?
आकाश में अनन्त तारे हैं. खुले आकाश में अपनी इन नंगी आँखों से देखने पर एक आदमी एक बार में लगभग 6000 तारों को ही देख पाता है. लेकिन वृश्चिक व धनु राशि के बीच में साफ तौर पर दिखने वाली एक राशि है, जिसमें मनुष्य के हाथ में नाग स्पष्ट प्रतीत होता है. इसी स्वरूप के आधार पर इसे सर्पधर या अंग्रेजी में ओफियूकस(Ophiuchus) नाम दिया गया है.
सर्पधर नामक इस तेहरवीं राशि की खगोलीय स्थिति:-
खगोल में कम से कम 4 स्थानों पर सर्पाकार बनता है. एक है कालिय(जिसे शिशुमार मंडल भी कहा जाता है), जो कि उतरी खगोल का तारामंडल है. दक्षिण खगोल में दूसरा हाइड्रस नामक छोटा सर्पमंडल है. तीसरा कर्क, सिँह राशि मंडल से दक्षिण की ओर महासर्प या हाइड्रा है.
चौथा यहाँ प्रसंगागत है, जो वृश्चिक राशि मंडल के उत्तर में व हर्क्युलिस से दक्षिण में है. इस मंडल में बनने वाले मानव के दोनों हाथों में सर्प मौजूद हैं. बायें हाथ के सर्प का सिर मनुष्य के सिर की तरफ है तो दाएं हाथ वाले साँप की पूँछ मनुष्य के सिर की ओर है. यह वृश्चिक से उत्तर की ओर स्थित है. यह मंडल काफी बडा है और इसके तारे कम चमकीले होने से देर से पहचान में आते हैं. इस सारे तारामंडल में सिर पर स्थित एक तारा, जिसे यूनानी वर्णमाला में अल्फा कहा जाता है, श्रवण नक्षत्र से पश्चिम में 33 अंश दूर है.
पिछली सदी के अन्तिम दशक मध्य ब्रिटेन में प्रकाशित होने वाली Royal Astronomical Society नाम की एक खगोलीय संस्था द्वारा राशिचक्र का एक चित्र प्रकाशित किया गया था, जिसमें इस सर्पधर तारामंडल को भी 13वीं राशि के रूप में अंकित किया गया था. इसे देखकर बहुत से लोगों नें फलित ज्योतिष का मजाक उडाया तथा ये तक कहा कि भारतीयों को यह राशि मंडल क्यों नहीं दिखाई दिया. इसका मतलब ये हुआ कि भारतीय वैदिक ज्योतिष निरा झूठ का पुलिंदा है. जब उन्हे राशियों की सही संख्या का ही ज्ञान नहीं तो तो वो ज्योतिष क्या खाक हुआ!
आज एक ब्लाग पर भी ऎसा ही कुछ देखने-पढने को मिला, जिसमें हमारे एक अति पूर्वाग्रही, पश्चिम मुखापेक्षी, अज्ञान समर्थक, कूपमंडूक बन्धु जाकिर अली साहब वैदिक ज्योतिषियों को इंगित कर कुछ ऎसे ही आपेक्ष लगाते मिले. यूँ तो इन लोगों को समझाना निरा भैंस के आगे बीन बजाने के समान है, क्योंकि ये वो लोग हैं जो सबकुछ जानते-समझते हुए भी समझना नहीं चाहते. बस हल्दी की गाँठ मिले बन्दर की माफिक खुद को पंसारी समझने के भ्रम में जी रहे हैं, साथ में दुनिया को भी गुमराह करने में लगे हैं.
यह भारतीय ज्योतिष की चूक नहीं है:-
खगोल में स्थित सभी तारामंडल राशि की पदवी नहीं प्राप्त कर सकते हैं. भारतीय नक्षत्र वेत्ताओं नें किसी भी तारामंडल को राशि का पद देने के लिए जो प्रमुख आधार माने हैं, उनमें तारों की चमक व उनका साफ स्पष्ट नजर आना और उस तारामंडल की क्रान्तिवृत(Ecliptic) पर स्थिति है.
सूर्य का दैनिक भ्रमण मार्ग, वास्तव में पृथ्वी का ही मार्ग है, जिस पर हमारी पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही है. इसी भ्रमणमार्ग का नाम क्रान्तिवृत है. क्रान्तिवृत की परिधि पर मेष, वृष आदि 12 तारामंडल ही हैं, जिन्हे राशियाँ कहा जाता है. इन राशियों का कोई न कोई भाग कल्पित क्रान्तिवृत पर अवश्य पडता है. इसकी परिधि में न आने वाले तारामंडल को राशि की पदवी नहीं दी जाती है.
यदि कोई तारामंडल क्रान्तिवृत पर न भी पडे, लेकिन क्रान्तिवृत पर पडने वाले दूसरे तारामंडल से अधिक तारों वाला व अधिक चमकदार होने से सीधे दृष्टि वेध में आता हो तो वह भी राशि मान लिया जाता है. यह स्थिति सिर्फ वृश्चिक, धनु व सर्पधर तारामंडलों पर ही लागू होती है. सर्पधर के पैरों का तारा क्रान्तिवृत पर पडता है, साथ ही वृश्चिक व धनु के तारे भी क्रान्तिवृत पर हैं. तब वृश्चिक को ही राशि क्यों माना गया, सर्पधर को क्यों नहीं माना ?
ध्यान से देखने पर पाते है कि वृश्चिक राशिमंडल क्रान्तिवृत के अधिक समीप है. वृश्चिक का चमकीला बीटा तारा क्रान्तिवृत से उत्तर की ओर व शेष मुख्य तारे दक्षिण की ओर हैं. इसके विपरीत सर्पधर के पैरों वाला तारा क्रान्तिवृत से दक्षिण की ओर अपने मंडल के अन्य तारों से काफी दूर छिटका हुआ है. सर्पधर के शेष तारों से यह तारा 10 अंश दूर है. दूसरी बात यह है कि सर्पधर के तारे वृश्चिक की अपेक्षा बहुत ही कम चमकीले हैं, जैसा कि पहले बता चुके हैं. साथ ही सर्पधर के तारे अपेक्षाकृत छितराये हुए भी हैं. वृश्चिक के समने यह तारामंडल एकदम फीका लगता है. वृश्चिक तारामंडल के नजर आने वाले 20 में से 14 तारे 3.3 मेग्नीटयूड से कम हैं, जबकि सर्पधर में ऎसे तारे 20 में से 6 ही हैं.
वृश्चिक के तीन तारे कम से कम 2 मैग्नीटयूड वाले हैं और सर्पधर में ऎसा एक भी तारा नहीं है. वृश्चिक में एक तारा तो 1.2 मैग्नीट्यूड वाला है, जो अपनी चमक से दूर-दूर तक विजयी चमक बिखेरता है. यही कारण है कि प्राचीन भारतीय मनीषियों द्वारा वृश्चिक से बडा तारामंडल होने पर भी 'सर्पधर' को राशि कि पदवी नहीं दी गई है. इसलिए राशियाँ 13 न होकर के 12 ही हैं.
सो, भारतीय वैदिक ज्योतिष पर आलतू-फालतू के आपेक्ष लगाने वाले कूपमंडूक पूर्वाग्रहियों को ये समझ लेना चाहिए कि वे लोग इस ज्ञान के आगे कहाँ ठहरते हैं.

सत्य की कथा या कथा में छिपा सत्य( श्री सत्यनारायण व्रत कथा रहस्य)

भला हिन्दू धर्म का कौन सा ऎसा व्यक्ति होगा, जो कि सत्यनारायण की कथा से परिचित न हो.इस कथा की लोकप्रियता का आंकलन आप इसी बात से कर सकते हैं कि यह कथा उतर भारत के हिन्दू परिवारों के तो जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी है.हालाँकि धर्म शास्त्रों में इस व्रत कथा को कोई स्थान नहीं, किन्तु रूढ-धर्म में इसका स्थान बेहद उच्च है. लोगों की यह धारणा है कि इस कथा से मनोकामनाऎँ सिद्ध होती हैं. लेकिन इस कथा में जो एक अजीब सी बात है और जिसके बारे में अक्सर बहुत से लोगों के मन में शंका और जिज्ञासा भाव भी रहता हैं, वो ये कि-----इसके सम्पूर्ण अध्यायों में सिर्फ कथा महात्मय का ही वर्णन पढने को मिलता है, मूल कथा क्या है ? यह कहीं नहीं मिलता.  
इस व्रत में सत्यनारायण की पूजा, कथा-श्रवण और प्रसाद भक्षण ऎसे तीन मधुर विभाग हैं. शायद इसी कारण इस व्रत में सत्य की जो महिमा है, वह लोगों को ध्यान में नहीं आती. लोगों का ध्यान उस ओर आकर्षित करने के लिए यह एक छोटा सा प्रयास किया जा रहा है. इस रहस्य को पढने से पूर्व जिन्हे सत्यनारायण की कथा मालूम न हो, उन्हे उसे जान लेना परम आवश्यक है.
धर्म मानव ह्रदय की अत्यन्त उच्च वृ्ति है; और वह मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन में व्यापत रहती है. हमारा जीवन जैसा ही उत्तम, मध्यम अथवा हीन होता है, वैसा ही रूप हम धर्म को भी देते हैं. बुद्धि-प्रधान तार्किक लोग जहाँ धर्म-वृति को तत्वज्ञान का दार्शनिक रूप देते हैं, प्रेमी लोग उपान का रूप देते हैं, कर्मप्रधान कला-रसिक लोग पूजा-अर्चना इत्यादि तान्त्रिक विधियों द्वारा धर्म-वृति का पोषण करते हैं, तहाँ साधारण अज्ञ जन-समुदाय कथा-कीर्तन द्वारा ही धर्म के उच्च सिद्धान्तों का आंकलन कर सकता है.
धर्माचरण के फल के सम्बन्ध में भी यही सिद्धान्त् लागू होता है. धर्माचरण का फल अन्तस्थ और उच्च होता है, यह बात जिनके ध्यान में नहीं आ सकती, उनको सन्तोपार्थ पौराणिक कथाओं द्वारा बाह्य फल दिखलाने पडते हैं. धर्मतत्व कितने ही ऊँचें हों, किन्तु यदि उन्हे समाज में रूढ करना हो तो उन्हे समाज की भूमिका प्रयन्त नीचे उतरना पडता है. भगवान बुद्ध के उपदिष्ट तत्व उच्च, उदात्त और नैतिक थे, किन्तु जब उन्हे देवी-देवता, पूजा-अर्चना तथा मन्त्र-तन्त्र आदि का तान्त्रिक स्वरूप देकर महायान-पन्थ अवतरित हुआ, तभी वे तत्व अथवा उनका अंश आधे से अधिक एशिया को भाया. यह सत्यनारायण का व्रत भी इसी किस्म का उदाहरण है. इस व्रत के विस्तार और लोकप्रियता को देखकर यह कहने में कोई बाधा नहीं है कि लोगों के ह्रदय में निवास करने वाले धर्म का स्वरूप इस व्रत में दृष्टिगोचर होता है.
संसार का बहुत सा व्यवहार अल्प-प्राण लोगों के हाथ में होता है. बहु-जन-समाज की सत्य पर श्रद्धा बहुत थोडी होती है. संसार में चाहे जैसी हानि को सहन करने योग्य पुरूषार्थ लोगों में नहीं दिखाई देता. सत्यासत्य का कोई-न-कोई विधि-निषेध रक्खे बिना क्षणिक और दृष्यमान लाभ के लिए लोग पल में वचन भंग कर डालते हैं, नियमों को लात मार देते हैं और झूठे को सच्चा कर दिखलाते हैं. अतएव यह एक भारी प्रश्न है कि कामना-सिद्धि के लिए सत्य को धत्ता बताने वाले अज्ञ जनों को सत्य की लगन किस तरह लगनी चाहिए और ऎसी श्रद्धा किस तरह दृड करनी चाहिए, कि------सत्य-सेवन ही से अन्त में सर्वकामना-सिद्धि होती है. साधु-सन्तों नें, नियमों की रचना करने वालों नें तथा समाज के नेताओं नें अनेकों प्रकार से प्रयत्न कर देखे हैं. सत्यनारायण-व्रत के प्रवर्तक नें इस प्रश्न को अपनी शक्ति और बुद्धि के अनुसार सत्यनारायण की पूजा और कथा द्वारा हल करने का प्रयत्न किया है.
लोगों में सत्यनारायण की पूजा प्रचलित करने से दो हेतु सिद्ध होते हैं. लोग सत्य-सेवी हों यह एक उदेश्य; और सत्य की महिमा समाज में निरन्तर गाई जाया करे यह दूसरा उदेश्य हुआ. इस पूजा का नाम उत्सव या अनुष्ठान नहीं वरन् व्रत रक्ख गया है, यह बात भी इस जगह ध्यान में रखने योग्य है. उत्सव में हम लोग किसी भूत-वृतान्त का अथवा किसी धार्मिक तत्व का उत्साहपूर्वक सहर्ष स्मरण करते हैं, और व्रत में हम अपना जीवन उच्चतर बनाने के लिए किसी दीक्षा को ग्रहण करते हैं.
सत्यनारायण की कथा श्रवण करने और स्वादिष्ट प्रसाद भक्षण करने मात्र से सिर्फ यही कहा जाएगा कि घर में सत्यनारायण का कीर्तन हुआ. पर वह व्रत किसी तरह नहीं माना जा सकता. जिसे सत्यनारायण का व्रत करना हो उसे सर्वदा, सभी स्थानों में और सभी प्रसंगों में सत्य के आचरण की और अवसर आ पडने पर सभी लोगों को सत्य का महत्व समझा कर सत्य का कीर्तन करने की, दीक्षा ग्रहण करनी होगी. यदि इस तरह व्रताचरण किया जाए तो ही कर्ता को सत्यनारायण व्रत के करने का फल प्राप्त हो सकता है अन्यथा नहीं.
संसार में सभी लोग सामर्थ्य और सम्पति चाहते हैं. धर्म कहता है कि "तुम्हे भूतदया और सत्य-आचरण के द्वारा ही सच्ची सामर्थ्य और सम्पति प्राप्त हो सकती है". पुराणों नें इसी सिद्धान्त को एक सुन्दर रूपक देकर हमारे मन में बिठाया है. पुराणों का कथन है कि सामर्थ्य और सम्पत्ति, अर्थात शक्ति और लक्ष्मी, क्रमश: कल्याण की अभिलाषा और सत्य अर्थात शिव और सत्यनारायण के अधीन रहते हैं; क्योंकि शक्ति तो शिव की पत्नि है, और लक्ष्मी सत्यनारायण की. यदि तुम पति की आराधना करोगे तो पत्नि तुम पर अवश्य ही अनुग्रह करेगी. इस तरह धन, धान्य, सन्तति और सम्पत्ति आदि ऎहिक लक्ष्मी की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को सत्य की अर्थात सत्यनारायण की आराधना करना इस व्रत में कहा गया है.
हिन्दूधर्म और हिन्दू-नीतिशास्त्र में सत्य का बहुत ही व्यापक अर्थ किया गया है. श्रीवेदव्यास नें महाभारत में सत्य के तेरह प्रकार कल्पित किए हैं. हिन्दू-शास्त्र और पुराणों को उलट-पुलट कर देखा जाए तो परस्पर बिल्कुल ही विभिन्न ऎसी तीन वस्तुऎं सत्य शब्द में समाविष्ट होती हैं.
पहली वस्तु----सत्य अर्थात यथार्थ कथन. जो बात जैसी हो, हम उसे जिस स्वरूप में जानते हों, अथवा जिस स्वरूप में बनी हुई हमने देखी हो, जिस स्वरूप में हमने उसकी विवेचना की हो, उसे ठीक ज्यों-की-त्यों कह देने का नाम है सत्य.
दूसरी वस्तु----सत्य अर्थात ऋतम, सृ्ष्टि का नियम अथवा किसी भी महाकार्य का विधान. 'सत्य ही से सूर्य उदय होता है','सत्य ही से वायु बहती है','सत्य ही से यह दुनिया चल रही है' इत्यादि शास्त्र-वचनों का अर्थ अनुलंघनीय नियम होता है.
तीसरी वस्तु-----सत्य अर्थात प्रतिज्ञा पालन. यहाँ सत्य के मानी हैं मुँह से एक बार निकले वचन का पालन करने की टेक. एक बार मुँह से निकले वचन को व्यर्थ न जाने देने की टेक. इसी सत्य के लिए कर्ण नें अपने कवच-कुण्डल दे दिए थे. इसी सत्य के लिए हरिश्चन्द्र नें राज्य का दान कर दिया और इसी सत्य के लिए श्रीराम बनवास गए थे. और तो क्या मातृभक्त पांडवों नें माता के वचन को सत्य करने के लिए एक द्रौपदी के साथ पाँचों भाईयों का विवाह कर लेने जैसे निन्दनीय कर्म को भी कर डाला. (लेकिन आजकल हमारी सत्य की धारणा अधिक विशुद्ध हो गई है. आज के जमाने में माँ के मुँह से निकले वचन को सत्य करने के लिए यदि पाँच भाई सम-विवाह करने को उद्यत हों जाएं, तो हम उन्हे मूर्ख और अय्याश कह डालेंगें.! अस्तु! पर यहाँ तो हम पुरानी धारणा के अनुसार सत्यनारायण की कथा का रहस्य खोलने चले हैं)
जन-समुदाय की दो वृतियाँ खास तौर पर बलवती होती हैं----लोभ और भय. इन दोनों वृतियों से लाभ उठाकर सत्यनारायण के कथाकार नें सत्य की महिमा गाई है. यदि आप सत्य का सेवन करें तो आपको सन्तति और सम्पत्ति आदि सभी सामग्री मिल जाएगी, समस्त संकट दूर होगें और मनोकामनाऎं परिपूर्ण होंगीं; यह तो हुआ लाभ. सत्य को भूल जाने से, सत्य को छिपाने से, तुरन्त ही आपके बाल-बच्चे मर जायेंगे, धन-धान्य का नाश हो जाएगा, दामाद पानी में डूब जाएगा, यदि राजा किसी को अन्याय से जेल में ठूँस देगा तो उसकी राजसत्ता नष्ट हो जाएगी और उस पर सभी तरह के संकट उमड पडेंगें; यह हुआ भय.
सत्य का फल सबके लिए समान फलप्रद है. सत्य-पालन का धर्म सभी वर्णों के लिए है, ऎसा बतलाने के लिए इस कथा में ब्राह्मण, राजा, बनिया और ग्वाला तथा लकडहारे लाए गए हैं और ऎसा मालूम होता है कि ऊपर बतलाये हुए सत्य के तीनों अर्थ सत्यव्रत में अभिप्रेत हैं. साधु और उसका दामाद दोनों अपनी की हुई प्रतिज्ञा को भूल जाते हैं; इसलिए उनपर सत्यदेव का कोप होता है. उसी के परिणामस्वरूप राजा चन्द्रकेतु भी उन दोनों से परामुख होता है. इन दुर्दैवी लोगों की स्त्रियों के ह्रदय में प्रतिज्ञा पालन का धर्म-भाव जागृत होते ही तुरन्त चन्द्रकेतु राजा के ह्रदय में भी न्याय-भाव जागृत होता है. साधु और उसका दामाद चोर-भय से दण्डी बाबा के सम्मुख झूठ बोलते हैं, इसलिए हमारे कथाकार उनके मिथ्याभाषण के कारण उन के सर्वस्व नाश हो जाने का अनुभव दिखलाकर निनाश-भय द्वारा उन्हे सत्यनिष्ठ बनाते हैं. कलावति पति-दर्शन के मोह में पडकर सत्यनारायण व्रत के नियम का भंग करती है. तुंगध्वज राजा भी अपनी वर्णोच्चता के अभिमान और सता के मद में सत्य का अनादर करता है. इससे कलावति का पति और तुंगध्वज का राज्य नष्ट हो जाता है, किन्तु उन का वह मोह और वह मद नष्ट हो जाने पर फिर से उनको अनन्त सौभाग्य प्राप्त हो जाता है. ऎसा बताकर कथाकार लोगों से कहते हैं, कि भाईयो! सच ही बोलो; अपने वचन का भंग मत करो तथा समाज के अथवा नैसर्गिक सर्वव्यापी नियमों का भंग मत करो, उनका उललंघन न करो. यदि इस तरह का व्यवहार करोगे तो तुम्हारा ऎहिक और पारलौकिक कल्याण अवश्य होगा. क्योंकि जो सत्य पर चलता है वह-------सर्वान कामानवाप्नोति, प्रेत्य सायज्य माप्नुयात !!( जीते जी सभी कामनाओं को पा जाता है और मरने पर सायुज्य, मोक्ष पाता है)
इस लोक-काव्य में सत्य को सर्व-रंग परित्यागी दण्डी का स्वरूप दिया है, यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है. सत्यपूर्वक चलने से सम्पूर्ण वासनाओं का क्षय होकर मनुष्य में सन्यस्तवृति आ जाती है, और सत्याचरणी मनुष्य में अन्त:स्थ वृतियों के और बाह्य समाज के नियमन अथवा दण्डन करने की दण्डी शक्ति आ जाती है, यह इस कथा के रचनाकार नें बडी सुन्दरता के साथ सूचित किया है. सत्यनारायण की पूजा में सत्य का स्वरूप और महिमा बतलाने वाले कितने ही श्लोक बडे उच्च भाव से भरे हुए हैं, उन्हे यहाँ देकर श्रीसत्यनारायण की यथामति की गई इस उपासना को मैं यहाँ समाप्त करता हूँ------
नारायणस्त्वमेवासि सर्वेषां च ह्रदि स्थित:
प्रेरक: पैर्यमाणानां त्वया प्रेरित मानस: !!
त्वदाज्ञां शिरसा धृत्वा भजामि जनपावनम
नानोपासनमार्गणां भावकृद भावबोधक : !!

गृह निर्माण एवं गृह प्रवेश में मुहूर्त विचार
पिछली पोस्ट मुहूर्त विचार की अनिवार्यता पर हमारे एक समानीय पाठक द्वारा अपने निजी अनुभव को साँझा करते हुए सवाल उठाया गया था कि----यदाकदा ऎसा भी देखने को मिल जाता है कि अपने लिए किसी भवन आदि के निर्माण समय सभी कुछ विधिपूर्वक एवं शुभ मुहूर्तादि में किया गया, लेकिन उसके बावजूद भी उस भवन में निवास करने पर जीवन में कष्टों,परेशानियों, विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड जाता है. इसका क्या कारण है ?
जहाँ तक मेरा विचार है, इसके पीछे प्रथम मूल कारण तो यह हो सकता है कि मुहूर्तादि का शोधन भली प्रकार से न किया गया हो तथा दूसरा कारण उस भवन में किसी बडे वास्तु दोष का होना.
अगर भली प्रकार गणना कर के मुहूर्त निर्धारण किया जाए, वास्तु पूजनादि कर्म करके प्रवेश किया जाए, तो उसमें निवास करने वाले गृहस्वामी एवं उसके कुटुम्बीजनों को किसी प्रकार की कोई हानि-परेशानी का सामना नहीं करना पडता. इसलिए भारतीय दर्शन, एवं हिन्दू संस्कृति में मुहूर्त का विशेष महत्व स्वीकार किया गया है. और यह मुहूर्त भी किसी विद्वान ज्योतिषी(जो वास्तु का भी ज्ञाता हो) से ही निकलवाना चाहिए. ऎसा करने से गृहस्वामी सभी प्रकार से शांती एवं सुख-समृद्धि को प्राप्त करता है. लेकिन यथासंभव अधिक वास्तुदोष वाले मकान-दुकान या भूमी को कभी लें ही नहीं और छोटे-मोटे वास्तु दोष वाली स्थिति में सर्वप्रथम उसका भी सटीक निवारण या निराकरण करवा अवश्य करवा लेना चाहिए. तत्पश्चात उस स्थान को उपयोग में लाया जाए तो ऎसा स्थान निश्चित रूप से कल्याणकारी सिद्ध होता है.
गृहनिर्माण एवं प्रवेश मुहूर्तादि सूत्र-------
  • मेष, वृष, कर्क, सिँह, तुला, वृश्चिक, मकर एवं कुंभ राशि में सूर्य के होने पर भवन की नींव खोदने-रखने से, या गृह निर्माणारंभ करने से गृहस्वामी सभी प्रकार से धन-समृद्धि, यश-प्रतिष्ठा एवं सुख-शान्ती से लाभान्वित होत है. इसके ठीक विपरीत मिथुन, धनु तथा मीन राशि में सूर्य के होने पर गृहारम्भ करने से न तो वो कार्य समय पर समाप्त हो पाता है, उल्टे विभिन्न प्रकार की आर्थिक एवं मानसिक परेशानियों का सामना भी करना पडता है. इसलिए इन समयावधियों में किसी भी प्रकार के निर्माण कार्य से सदैव बचना चाहिए.
  • गृहारम्भ में आश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, उत्तराषाढा, श्रवण, उत्तराभाद्रपद और रेवती------ये समस्त नक्षत्र ग्राह्य हैं. भरणी, कृतिका आदि अन्य नक्षत्रों में कभी भी निर्माणारम्भ नहीं करना चाहिए.
  • तिथियों में केवल द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी एवं पूर्णिमा ही इस कार्य के लिए ग्राह्य हैं. ये सभी तिथियाँ एक प्रकार से महाशुभप्रद हैं. इनके अतिरिक्त प्रतिपदा(एकम/पडवा) आदि को गृहारम्भ करना परिवार की स्त्रियों एवं धन हेतु हानिकारक सिद्ध होता है. अमावस्या को यदि आरम्भ किया जाए तो मन में एक प्रकार से भ्रम एवं भय की स्थिति बनी रहती है.
जब नवीन भवन आदि का निर्माण पूर्ण रूप से संपन्न हो जाए, उसमें दरवाजे आदि की भी संपूर्ण व्यवस्था हो जाए----तो उस भवन में प्रवेश(गृहप्रवेश)हेतु आप मुख्य द्वार की दिशा अनुसार अपने लिए शुभ समय का चुनाव कर सकते हैं.जैसे कि......
  • मुख्यद्वार यदि पूर्व की दिशा में हो तो रेवती और मृगशिरा नक्षत्रों में गृह प्रवेश शुभ रहता है.
  • दक्षिण दिशा में द्वार होने पर उत्तराफाल्गुनी और चित्रा नक्षत्र अति शुभफलदायी रहते हैं.
  • पश्चिम दिशा में मुख्यद्वार होने पर अनुराधा अथवा उत्तराषाढा में से किसी नक्षत्र को गृहप्रवेश करना कल्याणकारी है.
  • यदि मुख्यद्वार उत्तरदिशा में हो, तो उत्तराभाद्रपद और रेवती नक्षत्र शुभ हैं.

मुहूर्त विचार की अनिवार्यता.....

ज्योतिष शास्त्र का प्रमुख स्तम्भ है-----मुहूर्त विचार! मुहूर्त का आशय यह जानने से है कि कौन सा कार्य कब किया जाए, जिससे कि व्यक्ति को उस कार्य में निर्विघ्नता प्राप्त हो. उसे कार्य में सफलता प्राप्त हो सके. यदि गहराई से देखें, तो पायेंगें कि हमारे आसपास जो कुछ भी घटित हो रहा है, वह सब एक अदृश्य शक्ति द्वारा नियन्त्रित है, यहाँ तक कि स्वयं काल(समय) भी. आकाशमंडल में ग्रहों के द्वारा उनके अपनी कक्षा में परिभ्रमण की गति के अनुसार हर क्षण नये-नये संयोग बनते रहते हैं. उनमें जहाँ कुछ अच्छे संयोग होते हैं, तो वहीं कुछ खराब भी होते हैं. अच्छे संयोगों की गणना कर के उनका उचित समय पर जीवन में इस्तेमाल करना ही शुभ मुहूर्त पर कार्य सम्पन्न होना होता है.
यहाँ हो सकता है कि आप में से ही कोई ये सवाल भी कर बैठे कि भला क्या मुहूर्त पर कार्य करने से भाग्य बदल जाता है ? अर्थात यदि भाग्य में कोई उपलब्धि न हो, तो अच्छे मुहूर्त पर कार्य कर के भी क्या हम वस्तु विशेष को प्राप्त कर सकते हैं ?
ये ठीक है कि मुहूर्त हमारे भाग्य को तो नहीं बदल सकता, लेकिन कार्य की सफलता के पथ को तो सुगम बना सकता है. जिस प्रकार, कि यदि हमें किसी कार्य से कहीं जाना हो और बाहर आंधी, तूफान या मूसलाधार बारिश पड रही हो, तो निश्चित है कि गंतव्य पर पहुँचना बहुत कठिन हो जाएगा और यदि मौसम अच्छा हो, तो वही यात्रा हमारे लिए सुगम और आनन्ददायक हो जाएगी. इसी प्रकार से शुभ मुहूर्त में किया गया कोई भी कार्य सुगम हो जाता है. साथ ही यदि किसी प्रकार की अन्य हानि का होना लिखा है, तो वह क्षीण या कम हो जाती है. कहने का तात्पर्य यही है कि भाग्य बदले या न बदले, परन्तु जीवन के महत्वपूर्ण कार्यों को शुभ मुहूर्त में किया जाए तो भी व्यक्ति जीवन में किसी सीमा तक निर्विघ्नता एवं खुशहाली प्राप्त कर सकता है.
वैदिक ज्योतिष में जीवन के समस्त कार्यों के लिए अलग-अलग शुभ मुहूर्तों का विधान है. मुहूर्त काल गणना के अनुसार दिन एवं रात्रि में कुल 30 मुहूर्त होते हैं------15 दिन में और 15 रात्रि में. इस प्रकार एक मुहूर्त काल का समय होता है--48 मिनट और 24 सैकिंड. इसके अतिरिक्त तिथि, वार, नक्षत्र इत्यादि के आधार पर भी विभिन्न प्रकार के शुभाशुभ मुहूर्त निर्मित होते हैं-----जिन्हे योग कहा जाता है. उनका उल्लेख करने का यहाँ कोई औचित्य भी नहीं है, क्योंकि पाठकों की जानकारी हेतु यहाँ हम सिर्फ प्रतिदिन निर्मित होने वाले मुहूर्त के बारे में बात कर रहे हैं.
दिनरात के (रूद्र मुहूर्त से समुद्रम प्रयन्त) कुल 30 विभिन्न प्रकार के मुहूर्तों में एक मुहूर्त आता है----अभिजीत मुहूर्त जिसे कि "विजय मुहूर्त" भी कहा जाता है. यह दिन का अष्टम मुहूर्त होता है, जो कि अभिजीत नामक नक्षत्र के आधार पर निर्मित होता है. प्रतिदिन मध्याँह काल में लगभग 11:36 से 12:24 तक का समय इस मुहूर्त का रहता है. इस समय अवधि में नवीन व्यवसाय आरम्भ, गृह-प्रवेश अथवा नींव डालना, निर्माण करना आदि किसी भी नये कार्य का आरम्भ व्यक्ति के लिए शुभ फलदायी एवं किए गए कार्य में उसे निर्विघ्नता प्रदान करता है.
बेशक कुछ लोग इन सब पर भले ही विश्वास न करें लेकिन ये बात अनुभवसिद्ध है कि व्यक्ति की सफलता, असफलता और जीवन स्तर में परिवर्तन के संदर्भ में मुहूर्त की महत्ता को किसी भी तरह से अलग नहीं किया जा सकता. 

Text selection Lock by Hindi Blog Tips